शाम का वो ढलता सूरज ,
वो धुंधलाता-सा आसमान
gumगुम होती सी ये मद्धम किरणें,
और कुछ डूबते से अरमान ,
उन ठंडी बेज़ार हवाओं में
जब दीप न कोई जल पाए
दो आँखों की उस चमक से बस,
सारा अँधियारा छंट जाए …
हाँ, कुछ ऐसा ही है जीवन ये…
दिन छुपे या चाहे साँझ ढले ,इसे तो चलते जाना है, हाँ ,
कभी है दूर मंजिल, तो कभी न पास ठिकाना है ,
पर ऐसा है ये जीवन कि , यहाँ बस चलते जाना है …
जाड़े की उस शीत लहर में
धुआं धुआं सा हर ओर समा
सुबह सवेरे या शाम सहर में
रास्तों का ना कोई निशां
दिशाओं के इस भंवर में जब ,
कोई राह न जाते बन पाए ,
एक बढे हुए उस हाथ से बस,
फिर सारा रास्ता कट जाये
थाम लो उस हाथ को बस फिर
सारा कोहरा छंट जाए …
हाँ , कुछ ऐसा ही है जीवन ये , बस आगे बढते जाना है ,
हाथों में हैं हाथ कभी , कभी अकेले चलते जाना है ,
ऐसा ही है जीवन ये , रुकना न चलते जाना है …
बर्फीला वो मौसम जब,
सब शून्य सा स्थिर हो जाता है
हवा , पानी और ज़मीन क्या ,
दिल भी पत्थर हो जाता है ,
सख्त हुए हालातों को , उन जमे हुए जज्बातों को
एक प्यार भरा स्पर्श मात्र ,गर्मी से पिघला जाता है ,
उस ख़ामोशी के शोर में ,
गर्म हवा सा सहला जाता है , हाँ , जीवन ये चलता जाता है …
चाहे खुशी मिले या गम, हर हाल में ढलता जाता है ,
जीवन ये चलता जाता है …